Vihangam Yoga ek vihangam drishti sadguru sadafal dev ji maharaj
Vihangam Yoga ek vihangam drishti :-योग के शब्द ’युज समाधौ’, संय युज संयमने ’या ज युजिर योगे’ धातु में धातु घञ् ’प्रत्यय लगाने से तटस्थपन्न होता है, जिसका अर्थ क्रमशः समाधि लगाना, समन्वय करना और योग करना है। ‘योग’ शब्द का एक अर्थ जोड़ या मिलाप भी होता है। ‘अमरकोश’ में ’योग’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया गया है-
‘‘योगः सन्नहनोपायध्यानसंगतियुक्तिषु।’’
योग ’सन्नहन के उपाय, ध्यान, संधि और समास का बोधक है। इस प्रकार होता योग ’का सामान्य अर्थ जोड़ या मिलाप होता है। अध्यात्म में ्यात्म योग ’शब्द से जो विशेष अर्थ अभिप्रेत है, वह है- समाधि अवस्था में आत्मा और ब्रह्म का शब्द या जोड़। ‘योग’ शब्द के इस आध्यात्मिक अर्थ में एक गूढ़ रहस्य है।
मानव स्वभाव से ही आनन्द की खोज में रहता है। लेकिन उस आनन्द की तलाश के लिए वह प्रकृति की कई पसंदीदा वस्तुओं के साथ अपने को जोड़कर आनन्द की प्राप्ति करना चाहता है।
कुछ प्राकृतिक वस्तुओं की प्राप्ति से उसे क्षणिक प्राकृतिक आनन्द भी मिल जाता है। लेकिन ये सभी प्राकृतिक वस्तुएँ क्षणिक होने से और उनका मूल गुण नहीं आनन्द ’नहीं होने से अंतः वे दुःख का ही कारण बनता है।
अतएव शाश्वत आनन्द की प्राप्ति के लिए आत्मा और परमात्मा का मेल ही आध्यात्मिक अर्थों में ’योग’ कहलाता है।) महर्षि याज्ञवल्क्य ने शब्द योग ’शब्द की परिभाषा इसी तरह से दी है –
‘‘संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः।’’
– योगी याज्ञवल्क्य 1/44
अर्थात् परमात्मा और जीवात्मा के संयोग का नाम ‘योग’ है। विहंगम योग के प्रणेता आदित्य विहंगम योगी महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ने भी इसी योग ’शब्द के इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए अपने महान् सर्वग्रन्थ व स्वर्णवेद’ में लिखा है –
योग कहत हैं जोड़ को, योग कहत हैं सन्धि।
योग रहस्य उपाय में, जीव ब्रह्म की सन्धि।।
– स्वर्वेद 4/2/11
अर्थात् आत्मा और परमात्मा के मेल या संयोग को ही मूल योग कहते हैं।
‘योग’ शब्द के सम्बन्ध में थोड़ा विचार करने के पश्चात अब हम ंग विहंगम ’शब्द की व्युत्पत्ति पर अधिक विचार करेंगे। ङ ङ विहायसा गच्छति इति विहगमः। ’’ इस निरुक्ति में उप विहायस् ’उपपद के आगे म् गम्’ धातु और ’खच्’ प्रत्यय के योग से ‘विहंगम’ शब्द बनता है।
‘विहायस’ का अर्थ अन्तरिक्ष और ’गम्’ धातु का अर्थ गमन, ज्ञान और मोक्ष है। विहस का ह विह ’आदेश हो जाता है और’ मुम् ’के आगम होने से ह विहंगम’ शब्द बन जाता है। अतः विहंगम मार्ग का अर्थ अन्तरिक्ष के द्वारा गमन, ज्ञान और मोक्ष का साधन करना है, जो नितान्त समीचीन और उपयुक्त है।
इस तरह ‘विहंगम’ और ‘योग’ इन दो शब्दों कीtyत्ति के अर्थ से यह स्पष्ट है कि अन्तरिक्ष के द्वारा गमन, ज्ञान और मोक्ष साधन से समाधि की अवस्था में आत्मा और परमात्मा का जो मेल या जोड़ होता है, उसे ही विहंगम योग है। कहते हैं। ‘विहंग’ का अर्थ आकाश में गमन करने वाला अर्थात् पक्षी भी होता है।
जिस तरह अन्तरिक्ष में गमन करने के लिए पक्षी को पृथ्वी का आधार छोड़ना पड़ता है, उसी तरह विहंगम योग में चेतन परमात्मा की प्राप्ति के लिए, चेतन साधन करने के लिए प्रकृति के आधार को छोड़ना पड़ता है।
प्रकृति और प्राकृतिक करणों का आधार नितान्त त्याग कर के स्व ’के शुद्ध ज्ञान से आत्मा का साधन, उत्थान, गमन पक्षी की नाई जब निराधार होने लगता है तब विहंगम योग होता है। यहाँ पक्षी की तुलना आत्मा की चेतन-शक्ति सुरति से की गयी है।
आत्मा की चेतना जब सारे देह-संघात में रहती है, तब तक प्रकृति के त्रयगुण का सम्बन्ध बना रहता है। चेतन आत्मा जड़ अनात्म-जगत् को छोड़कर जब चेतन परब्रह्म की भक्ति करता है, केवल विहंगम होता है। अर्थात् प्रकृति से असंग हो आत्मा के स्वज्ञान से जो साधन होता है, वही विहंगम योग है।
‘विहंगम योग’ शब्द की व्युत्पत्ति के अर्थ को जानने के बाद अब यह विचार करें कि वास्तव में यह योग क्या है? जैसा कि हम पहले जानते हैं कि ‘योग’ का सामान्य अर्थ है जोड़ना। अतः यह स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि व्हाट्स व्को जोड़ना है।
अध्यात्म-जगत् में यह आत्मा और ब्रह्म का जोड़ है। यानी आत्मा को ब्रह्म से जोड़ना ही योग कहलाता है। लेकिन आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ ’आत्मा’ और शब्द ब्रह्म ’शब्द की सत्ता पर ही प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं, वहाँ इसे परिभाषित करना और बहुत कठिन हो गया है। इसीलिए पहले हमें आत्मा और ब्रह्म की सत्ता को ही समझना होगा।
इस पंचभौतिक शरीर में आत्मा ही एक चेतन सत्ता है और बाकी सब जड़ है। इस शरीर में पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) के साथ-साथ पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, जिहना और त्वचा), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, गुदा, लिंग और वाणी) और चतुष्टय अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) ये चैबीस तत्त्व रहते हैं। लेकिन जब तक इसमें पचीसवाँ तत्त्व का आत्मा ’का संयोग नहीं होता है तब तक इसमें चेतना का संचार नहीं होता है। इसी चेतन सत्ता आत्मा का संयोग-वियोग से शरीर जीवित और मृत माना जाता है।
हम पसंद करते हैं: देखते हैं कि मृत्यु के पश्चात शरीर की सभी इन्द्रियाँ वर्तमान रहती हैं, लेकिन उनमें क्रिया नहीं होती क्योंकि क्रिया का संचालन करने वाली करने आत्मा ’का वियोग हो गया है। शरीर में वर्तमान समान चेतन सत्ता को हम वर्तमान आत्मा ’के नाम से जानते हैं। आत्मा की जो चेतन-शक्ति है उसे हम ‘सुरति’ कहते हैं।
आत्महत्या का संयोग जब मन से, मन का इन्द्रियों से और इन्द्रियों का विषयों से होता है तो हमें प्राकृतिक विषयों का सारा ज्ञान या अनुभव होता है। आत्म-चेतना का स्वभाव की ओर जो मन के संयोग से प्रवाह है उसे हम अर्ध-धार कहते हैं।
जिस तरह इस शरीर के अंदर अणु-एकाग्रता आत्मा के रूप में विराजमान है, उसी तरह इस सम्पूर्ण विश्व को संचालित करने वाली एक विभु-एकाग्रता है। सृष्टि का कण-कण उसी के आधार पर क्रियाशील है। सम्पूर्ण नक्षत्र-मण्डल, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चन्द्र, तारे और सृष्टि की पूरी प्रक्रिया जिस विभुषण के द्वारा संचालित होती रहती है, उसे ही हम परमात्मा कहते हैं। वही परमात्मा आत्मा का भी अन्तरात्मा है।
वह परमात्मा सबका एकम्, आलथद्र, जगत्पिता, परमपुरुष इस चराचर जगत् में एकरस परिपूर्ण रूप से व्यापक है। वही सच्चिदानंद स्वरूप है, जिसे वेदों में कथा, वंश, भूमा, नाम आदि कहा गया है। आत्मा की चेतना जब प्रकृति का आधार छोड़कर उस विभु-धूप (परब्रह्म) की ओर गमन करने लगती है तो यह हम ऊपर-धार कहते हैं। अतः आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व स्वत: अनुक्रम है।
इसी परिप्रेक्ष्य में परम पूज्य अनन्त श्री सद्गुरु सदाफलदेव जी महाराज ने की योग ’की अलौकिक परिभाषा इस प्रकार दी है –
योग योग सब कोइ कहे, योग न जाना कोय।
अर्ध धार ऊरध चले, योग कहावे सोय।।
– स्वर्वेद 4/2/7
यानी योग तभी होता है, जब आत्मा की चेतना जो अर्धधार में प्रकृति से संयुक्त हो रही है वह ऊपर्व-धारा में परमात्मा की ओर गमन करने लगती है। इस रहस्य-भेद को अनुभव के आधार पर ही समझा जा सकता है। अनुभव में जब आत्महत्या के अर्ध से ऊर्ध्व होने की प्रक्रिया का भान होने लगे तो समझना चाहिए कि योग की स्थिति घटित होने लगी है। यही स्थिति तब पूर्ण हो जाती है जब अणु-आत्मचेतना उस विभूति-साक्षता का सदर्म्म्य प्राप्त करती है। इसे ही आत्मा का परमात्मा से योग होना कहा जाता है।
इस तरह योग की उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि योग का वास्तविक अर्थ है- आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध। कोई भी सच्चा सम्बन्ध सजातीय तत्त्व में ही हो सकता है, विजातीय से नहीं। ईश्वर एक चेतन सत्ता है और आत्मा भी चेतन होने से दंडनीय है। अतः आत्मा के द्वारा ही ईश्वर का साक्षात्कार सम्भव है, अन्य प्राकृतिक साधनों या अलंकरणों से नहीं। क्योंकि ये सभी प्राकृतिक करण जड़-तत्त्व हैं- चेतन नहीं।
इस योग-साधन के तीन प्रमुख मार्ग हैं-
- पिपिल मार्ग
- कपिल मार्ग
- विहंगम मार्ग
पिपिल हम पिपिलिका यानी चींटी को कहते हैं। उसी तरह चींटी की गति प्रकृति के आधार पर ही होती है, उसकी सारी गतिविधियाँ उसके आधार के बिना नहीं हो सकती हैं, उसी तरह ’पिपिल मार्ग’ के द्वारा जो योग-साधन करते हैं उनका भी आधार यह प्रकृतिजन्य शरीर ही होता है।
इस प्रकृतिजन्य शरीर के आधार पर शरीर की इन्द्रियों के माध्यम से ही उनके साधन चलते हैं। इसे हम प्राकृतिक साधन भी कह सकते हैं। प्रकृति का आधार लेकर होने वाले सदनों से प्राकृतिक प्राप्ति ही हो सकती है, ईश्वर की प्राप्ति नहीं।
इस तरह पिपिल मार्ग वह मार्ग है जिसके द्वारा योग-साधन प्रकृति से निर्मित सभी देवताओं के आधार पर किया जाता है, आत्मा की चेतन सत्ता के द्वारा नहीं।
इसे हम योग और शरीर के धरातल के रूप में शारीरिक योग भी कह सकते हैं। सभी आसन-प्राणायाम, षट् क्रियाएँ आदि इसी पिपिल योग के अन्तर्गत हैं।
इसी तरह। कपिल ’का अर्थ बन्दर होता है। एक कपिल ’जिस तरह एक आधार से दूसरे आधार पर गमन करते रहते हैं, उसी तरह कपिल मार्ग का साधन भी मन के द्वारा प्रकृति के आधार पर ही रहता है लेकिन एक से दूसरे और तीसरे से तीसरे आधारों का सहारा लेकर साधक आगे का अभ्यास करता है। है।
इसमें थोड़ी गतिशीलता है लेकिन निराधार गमन करने की प्रवृत्ति नहीं है। हमारा मन भी बन्दर की तरह ही चंचल है, इसलिए योग कपिल योग ’में इस चंचल मन को शान्त करने का अभ्यास कराया जाता है। इस प्रकार मन के धरातल पर किए गए साधन मार्ग कपिल मार्ग ’की श्रेणी में आते हैं।
तीसरा मार्ग विहंगम मार्ग है। विहंगम का अर्थ पक्षी से है। यानी जिस तरह पक्षी पृथ्वी के आधार को छोड़कर निराधार गमन करता है, उसी तरह इस मार्ग का साधक प्रकृति को छोड़कर आत्मा के शुद्ध स्वरूप से एम्पगुरु के साधन-भेद द्वारा परमात्मा के आधार पर स्थित हो जाता है।
यहाँ शरीर वृक्ष का और आत्मा की चेतना पक्षी का प्रतीक है। प्रभु प्रकृतिपद है, इसलिए उसके पाने का मार्ग भी प्रकृति से परे है। अतएव शुद्ध आत्महत्या के आधार पर जो योग-साधन होता है, वही शुद्ध विहंगम योग ’है। इस विहंगम योग के सन्दर्भ में महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ने कहा है-
विहंगम कवन वर ढंग है, उडै़ निराल अकाश।
पन्थ गमन बाहर नहीं, अन्तर सहज प्रकाश।।
– स्वर्वेद 4/2/30
इसी संदर्भ में स्वामीजी आगे कहते हैं –
मीन विहंगम मार्ग है, अनुभव गम पर देव।
देव सदाफल गुरु कृपा, सुरति निरति कर सेव।।
– स्वर्वेद 5/1/51
इस अनुभवगम्य विहंगम मार्ग के द्वारा ही प्रकृति से असंग होने पर सुरति जब सूक्ष्म होकर निरति बन जाती है, तब आत्मा के शुद्ध चेतन स्वरूप से गुरु-कृपा से परमात्मा की प्राप्ति होती है। इस संदर्भ में वाराहोपनिषद् में भी एक मंत्र है-
शुकश्च वामदेवश्च द्वे सृती देवनिर्मिते।
शुको विहङ्गम: प्रोक्तो वामदेवः पिपीलिका।।
इस मंत्र में पिपिल मार्ग और विहंगम मार्ग का संकेत दिया गया है। अतः यह विहंगम मार्ग शास्त्रोक्त है। इस तरह संक्षेप में हम कह सकते हैं कि शरीर के आधार पर किये गये समस्त यौगिक क्रियाएँ ‘पिपिल योग’ हैं, मन के आधार पर किये गये सभी साधन ‘कपिल योग’ हैं और विशुद्ध आत्मिक चेतना के आधार से सम्पादित योग-साधन ‘विहंगम योग’ है।
इस विहंगम योग में भी िप पिपिल योग ’और योग कपिल योग’ के साधन साधन किए जाते हैं, लेकिन वहाँ पर पूर्णविराम नहीं दिया जाता है, बल्कि सद्गुरु के ज्ञान-प्रकाश में आगे बढ़कर ह विहंगम योग का साधन भी किया जाता है।
यह विहंगम योग कोई नया योग नहीं है, लेकिन चारों ओर वेदों में इसका वर्णन मिलता है। वेद हमारे प्राचीन आध्यात्मिक ग्रन्थ हैं। वेदों में जगह-जगह पर इस ब्रह्मविद्या विहंगम योग का वर्णन आया है।
महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ने अपने साधन-अनुभव के द्वारा वेद के मन्त्रों का साक्षात्कार कर उसे अपने वि चतुर्वेदीय ब्रह्मविद्या-भाष्य ’में उद्धृत किया है और विहंगम योग के वैदिक धरातल में उद्भासित किया है। यजुर्वेद का एक मन्त्र है-
सुपर्णोऽसि गरुत्मान्दिवं गच्छ स्वः पत।। -यजु0 अ0 12/ऋ0 4
जिसका अर्थ होता है – ‘र्ण तुम सुपर्ण अर्थात् सुंदर पंखों से उड़ने वाले पक्षी हो। उसी के समान आप दिव्य ज्ञान चेतन परम प्रकाश को गमन करो और परम सुख को प्राप्त करो। ” ”
एक और वेद मन्त्र योग के स्वरूप को इस प्रकार व्यक्त करता है-
योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे।
सखाय इन्द्रमूतये।।
– साम0 पू0 2/7/2/5/9
अर्थात् सर्व योग-साधन और समाधिकल में और सर्वज्ञान-दीक्षा या श्रवणकाल आदि में अपने कल्याण के लिए सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर से प्रार्थना करके कार्य प्रारम्भ करना चाहिए। भाव यह है कि महाप्रभु से प्रार्थना कर कार्य उठाने से वह कार्य महाप्रभु की कृपा से निर्विघ्न पूर्ण समाप्त होता है।
इस तरह वेद के कई स्थलों पर विहंगम योग से संबंधित मन्त्र आये हैं, जिनके वास्तविक अर्थ साधना की गहराई में उतर कर ही अनुभूत किया जा सकता है। अतएव विहंगम योग ईश्वर को प्राप्त करने का वेदविहित अत्यन्त ही प्राचीन मार्ग है।
आज सामान्य रूप से अधिकांश-व्यक्ति योग का अर्थ आसन या प्राणायाम से लेते हैं और इसे शरीर स्वस्थ रखने का एक साधन समझने के हैं। लेकिन योग का महान् और मौलिक उद्देश्य ब्रह्म-प्राप्ति है। आसन और प्राणायाम से शरीर स्वस्थ और शुद्ध रहता है और योग करने के अनुकूल बनता है।
जिस तरह बीजीकरण से पूर्व खेत को जोतकर मिट्टी को श्याम बनाकर उसे बीज बोने के अनुकूल बनाते हैं, उसी तरह आसन और प्राणायाम से शरीर योग के अनुकूल बनता है और तब साधन-अभ्यास में सफलता मिलती है। योग द्वारा शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्तियों के विकास के साथ-साथ आत्महत्या का विकास भी होता है, और यही वांछनीय भी है। इस विहंगम योग को ही वेदों में पराविद्या, ब्रह्मविद्या, मधुविद्या, अध्यात्मविद्या और संतमत में विहंगम योग, मीन मार्ग आदि कहा गया है।
इस विहंगम योग के दो भेद हैं- एक बाह्य तत्त्वज्ञान और एक आन्तरिक साधना। इस सम्बन्ध में अध्यात्म-मार्तण्ड महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ने कहा है-
ब्रह्मविद्या दो भेद है, तत्त्व ज्ञान अभ्यास।
प्रथम बोध तत्त्वन करें, अन्तर भेद समास।।
-स्वर्वेद 4/1/18
इस प्रकार विहंगम योग को सिद्धान्त तो जानने के बाद इसकी साधनात्मक पक्ष पर कुछ प्रकाश डालने की आवश्यकता है।
समर्थ सद्गुरु के संरक्षण में ही योग-साधन का अभ्यास करना चाहिए। भवंगम योग की साधना की पाँच भूमियाँ हैं। विहंगम योग की प्रथम भूमि की साधना में मन को बाहर में ही एक केन्द्र-विशेष पर रोकने का अभ्यास किया जाता है।
इसके बाद दूसरी भूमि की साधना में मन को अन्तर्मुखी द्वारा उसे एक अन्य केंद्र पर जिसे संतों की भाषा में त्रिवेणी (इंगला, पिंगला और सुष्मना नाड़ी का संगम) कहा जाता है, वहाँ शान्त करने का अभ्यास हो जाता है।
थन्तर तृतीय भूमि की साधना में एक विशेष केन्द्र अर्थात ब्रह्म द्वार (ब्रह्माण्ड का शीर्षस्थ भाग) पर मन को केन्द्रित करके उसे शान्त-स्थिर कर दिया जाता है। ये तीनों साधनाएँ प्रकृति-मण्डल के अन्तर्गत ही आती हैं।
अब इसके आगे चौथी और पाँचवीं भूमि शुद्ध रूप से विहंगम योग की चेतन-भूमि है जहाँ पर आत्मा के शुद्ध चेतन स्वरूप से एम्पगुरु के विशेष युक्ति-भेद से साधन होता है। यहीं पर आत्म-दर्शन और तन्तर परमात्म-दर्शन होता है और इसी पाँचवीं भूमि में योग की पूर्णता सिद्ध होती है।
योग-साधन की भूमियों के केंद्र गुरुमुखी होते हैं, इसलिए उन्हें खोलकर नहीं लिखा जा सकता है और योग्य साधकों को उसकी पात्रता के अनुसार एम्पगुरु के अनुसार यह स्वयं करने योग्य हैं। यही विहंगम योग के चेतन-साधन का विज्ञान है जिसके बारे में महर्षि सदाफलदेव जी महाराज लिखते हैं-
चेतन चेतन ज्ञान है, चेतन चेतन ध्यान।
चेतन वपु चेतन भया, पर चेतन विज्ञान।।
-स्वर्वेद 5/8/27
इस विहंगम योग की पाँच भूमियों की साधना का संकेत वेदों में भी ‘पंचक्षितीनाम्’ (ऋग्वेद) के द्वारा किया गया है। इस विहंगम योग के ज्ञान को अनुभूत करने के सम्बन्ध में परमाराध्य स्वामीजी ने उद्घोष किया है-
‘‘अद्भुत मारग योग विहंगम, मैं तुमको बतलाऊँगा।
यदि विधिवत् तुम साधन करिहो, अमरलोक पहुँचाऊँगा।’’
आज विहंगम योग की इस ज्ञान-परम्परा में द्वितीय परम्परा सद्गुरु आचार्य श्री स्वतन्त्रदेव जी महाराज इस विमल ज्ञान को मानवता के कल्याण के लिए देश-विदेश में प्रचारित कर रहे हैं और अब तक करीब विश्व के 45 देशों में यह ज्ञान अपनी प्रखर दस्तक दे चुका है। भारत की प्राचीन योग-विद्या अपने शुद्ध स्वरूप में आज भी विश्वगुरु बनने का अहसास करा रही है।
Author -सुखनन्दन सिंह ‘सदय’
सम्पादक, विहंगम योग सन्देश एवं पूर्व महाप्रबन्धक सेल, बोकारो स्टील प्लाण्ट
sadguru sadafal dev ji maharaj Dandakvan Ashram
BHAKT RECEIVING GYAN FROM SAINT SRI VIGYAN DEV JI, MAHARISHI SADAFAL DEV ASHRAM BOKARO
WHO WERE SADGURU IN THEIR PREVIOUS LIFE KNOW EVERYTHING